सौरभ
उसकी काठी मज़बूत थी लेकिन क़द ज़्यादा न था मगर आवाज़ भारी और रौबीली थी और मिज़ाजन भी वो दबंग था। बचपन में उससे मेरा 36 का आंकड़ा था और साथ खेलते हुए अक्सर झगड़ा होता था मगर हाथापाई के नौबत आने से पहले ही मैं भाग लेता था, लेकिन डॉक्टर ज़फर का बेटा तनवीर, सौरभ से पूरा पंगा लेता था और दोनों में अक्सर गुथ्थम गुथ्था हो जाती थी और बाद में दोनों के अब्बा उनकी कुटाई करते थे। इन झगड़ों के बाद आपस में एक दो दिन बातचीत बंद रहती थी फिर बाद में खुद बा खुद सुलह हो जाती थी। 1975 में बाबूजी के रिटायरमेंट के बाद जब हम अपने इस मौजूदा अमीर निशान वाले घर में आये तो हमारा मकान एक खासी बडे मैदान के एक कोने में था और यहाँ 3 मकान पहले से मौजूद थे . एक में डॉ ज़फर, एक में सिंह साहब और एक में सक्सेना अंकल की फैमिलीज़ रहती थीं। सौरभ इन्ही सक्सेना अंकल का बेटा था, सक्सेना साहब irrigation डिपार्टमेंट में इंजिनियर थे और चूंकि बाबूजी भी इसी महकमे से रिटायर हुए थे इसलिए दोनों घरों में काफी आना जाना था। इन मकानों के अलावा पड़ा मैदान खेल कूद का अड्डा था जहाँ आस पास के मोहल्लों के बच्चे भी आते थे। आम तौर पैर क्रिकेट खेल जाता थ, लेकिन और भी बहुत से खेल होते थे, हमने अपने इस मैदान में कसरत से गिल्ली डंडा, कंचे , पतंगबाजी करते थे। दिन की रौशनी कम हो जाने के बाद हम नए बन रहे मकानों की नीवों में छुपा छुपाई खेलते थे। सौरभ अक्सर बीच खेल में आता था अपनी हेकड़ी से इनमें शामिल हो जाता था। किसी में उसको मना करने की हिम्मत नहीं थी। अपनी मर्जी से जी भर जाने के बाद ही वो जाता था। अपनी पर्सनालिटी की वजह से वो सारे खेलों में dominate करता था। जब वो बोलिंग करने के लिए रन उप से भागता था तो काली माता की तरह ज़बान मुंह से बहार निकाल लेता था। उसके इस विकराल रूप को देख कर अच्छे अच्छे batsmen विकेट छोड़ कर हट जाते थे। वो हमारी टीम का स्ट्राइक बॉलर था लेकिन उसकी जादातर गेंदें ईरान के तूरान पड़ती थीं। कुछ को तो वो अपने पैरों के पास ही पटख देता था जो बावजूद तेज़ रफ़्तार के कई टिप्पे खा कर पहुँचती थीं। अपनी रफ़्तार से वो खूब wickets निकल लेता था। अपने घरों के पास बाल बिरादरी क्लब में भी हम लोग खेलने जाते थे, table tennis की नाज़ुक सी गेंद को खेलते हुए वो इतनी जोर से अपना पैर ज़मीन पे मरता था की दूसरी तरफ का खिलाडी खासा हिल जाता था। शाम को अक्सर जब लाइट चली जाती थी तो हम सब दोस्त अहबाब नए बनने वाले घरों के लिए लाई गयी रेत और बजरी के ढेरों पर बैठ कर तरह तरह की आवाजें निकलते बेसुरी आवाज़ों में जोर जोर से गाने गाते थे। भय्या को हमारी ये हरकत कुछ ख़ास पसंद नहीं थी इसलिए कभी कभी ये करने पर हमारे कान पर झापड़ भी लग जाता था।
धीरी धीरी जब हमारा खेलने का मैदान नए घरों से भरने लगा तो हम लोगों ने एक बैडमिंटन कोर्ट बना लिया और इस खेल में सौरभ अपने स्पोर्टिंग talent की इंतेहा को पहुंचा। इस खेल में उसकी एनर्जी को मात देना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था।
जब बैडमिंटन कोर्ट की भी जगह न रही तो रात को ताश की बैठकें होने लगीं। देहला पकड़ हमारा favorite गेम था। इसकी बाज़ियाँ अमीर निशान में शेर मोहम्मद हलवाई के कुल्ल्हड़ के दूध या दोधपुर में शब्बीर हलवाई की लस्सी और रबड़ी के लिए शर्त लगा कर खेली जाती थीं। हरने वाली टीम को ये खर्च उठाना होता था।
कुल मिला कर ये के वो 440 volts का inexhaustible एनर्जी पैक था। बचपन में मेरी उससे जादा नहीं बनती थी लेकिन बड़े होते होते हम लोग अच्छे दोस्त बन गए। मैं math में फिसड्डी था और वो माहिर, लिहाज़ा अम्मा के कहने पर मैं उसके पास पढ़ने भी जाने लगा।
उसका इंजीनियरिंग में selection हो गया और civil engineering करने के बाद उसने मां बाप के पास ही रहने का फैसला किया। उसने अपने घर में ही सड़क की तरफ कुछ दुकानें निकालीं और उनमें architectural ऑफिस "design center " के नाम से खोल लिया। ये काम कुछ ख़ास कामयाब नहीं हुआ और इसको बंद करके उसने वहीं एक PCO खोल लिया। ये PCO's का शुरूआती दौर था और उसका ये काम खूब चला और वो जगह आखिर तक सौरभ PCO के नाम से ही मश्हूर रही..... हम लोग इसी के reference से अपने घरों का पता बताते थे। अब्दुल्लाह कॉलेज करीब में होने की वजह से वहां की Hostel वाली लड़कियां इसी PCO पर फोन करने आती थीं। इतवार को तो वहां नंबर लगता था।
उसका PCO देर रात तक खुलता था और मैं गली में रात को ट्रांजिस्टर पर गाने सुनते टहलते हुए उसके पास जाकर बैठ जाता था और दुनिया जहाँ की बातें होती थीं। उन दिनों मैं विनोद खन्ना का बहोत बड़ा फैन था और उसके पहने हुए तमाम चश्मों की shapes के sunglasses मेरे पास थे। मेरी इस पसंद को जानते हुए उसने मुझे ही खन्ना साब कहना शुरू कर दिया और आखिर तक मुझे इसी नाम से पुकारता रहा।
धीरे धीरे उसका ये PCO भी phase out हो गया तो उसने जूतों का कारोबार शुरू कर दिया और इन दुकानों में शोरूम खोल लिया। साइड में वो सरकारी महकमों में ठेकेदारी भी करता था। माँ बाप के साथ रहने के लिए उसने अपना इंजीनियरिंग करियर कुर्बान कर दिया। इस दौर में ऐसी मिसालें कम ही देखने में आती हैं। या शायद उसे इल्हाम था जो उसने कहीं न जाने का फैसला करते हुए भरपूर जिंदिगी जी और माँ बाप की खिदमत करते हुए उनके पास ही रहा.
अलीगढ छोड़ने के बाद इन 15 सालों में उससे मुलाकातें कम हो गयी थीं लेकिन जब भी वो मुझे देख लेता था तो जोर से खन्ना साब की हुंकार लगा के ज़बरदस्ती अपनी दुकान पे चाय के लिए रोक लेता था और तकरीबन हर बार येही कहता था "खन्ना साब अब बहोत दिन हो गए, और कितना कमाओगे ? बस अब वापस आ जाओ" मैं मुस्कुरा कर कहता था "एक दुकान दे दो मैं आ जाता हूँ".
January 2013 की न जाने कौन से तारिख थी जिस दिन मैंने भय्या को फोने किया तो उन्होंने बताया के सौरभ अचानक इस दुनिया से रुखसत हो गया। उसने AMU मेडिकल में बन रहे trauma सेण्टर में construction मेनेजर की नौकरी करी हुई थी और इस दिन सुबह सुबह उसको बेचैनी हुई और इमरजेंसी जाते जाते वो................
उसकी अचानक मौत के बाद वो मेरे ज़ेहन में अक्सर आने लगा है। कल किसी काग़ज़ को ढूंढने के लिए मैंने पुरानी अलमारी की दराज़ खोली तो उसमे से काफी सामान निकला। कुछ काग़ज़ों पर पुराना हिसाब लिखा हुआ था, कुछ पर पते और फोन numbers लिखे हुए थे। कुछ अख़बारों की कतरनें थीं और कुछ पर शेर लिखे थे। इनको देखकर मैं एक उदास ख्यालों के समुन्दर में गोते खाने लगा। ऐसी ही किसी अलमारी को उसकी माँ ने खोला होगा तो उन्हें उसके कपड़ों में बसी खुशबू आयी होगी................... कुछ काग़ज़ मिले होंगे जिनपर अधूरे हिसाब लिखे होंगे कुछ पर अधूरे मंसूबों की लकीरें दिखी होंगी।
मैंने सर को झटका देकर खुद को इस ख्याल से अलग किया और कमरे से बाहर आ गया और टीवी देखने लगा। channels flip करते करते एक एक जगह रुक गया जिसपर विनोद खन्ना की फिल्म चल रही थी। फिर कैसे इस ख्याल को दिल से निकलता कि इस बार जब मैं अलीगढ पहुंचुंगा तो घर को जाने वाली दोनों गलियां उसके घर को छूते हुए निकलेंगी उसके घर की जो दीवारें जो इन गलियों से मिलती हैं उनपर पर बाबूजी के हाथ की लिखी हुई "UNITED COLONY" की तख्तियां तो लगी होंगी मगर सौरभ की दुकानों से न तो मुझे खन्ना साब की आवाज़ आयेगी और न ही घर पे बाबूजी मिलेंगे, उनको भी गए हुए 12 मई को एक साल हो जायेगा।
मुझको शिकवा है मेरे भाई के तुम जाते हुए
ले गए साथ मेरी उम्रे गुज़िश्ता की किताब
इस में तो मेरी बहुत कीमती तस्वीरें थीं
इस में बचपन था मेरा और मेरा अहदे शबाब
4 comments:
Behatreen is se zyada aur kya likhoon.Saurabh Bhai ka sarrapa wajood relay sa ho gaya.
thanks........
प्यारे दोस्त मुजीब के लिखे इन लफ़्ज़ों ने आज यादों के एक ऐसे समंदर में डुबोया जिसने बचपन में बिताये खेलते कूदते मुस्कुराते लम्हों की खुश्बू से मेरे वजूद को सराबोर कर दिया. सौरभ एक खट्टी मीठी यादों के साथ जेहन में उभरा तथा साथ बिताये कई लम्हो को बांटने का दिल किया.
सन 1978-79......पापा का तबादला अलीगढ़ से श्रीनगर हुआ था...युनाइटेड कॉलोनी के उस मकान में आखरी दिन जब अपना समान पैक कर रहे थे...सौरभ, जो की एक जन्म जात शरारती था (जैसा मुजीब ने सर्टिफाइ किया), ने मुझे एक कमरे मे अकेला देखकर, बाहर से दरवाज़ा बंद कर दिया और भाग गया...गुस्से से उबलते हुए दरवाज़ा पीट पीट कर दीदी से खुलवाया...और सौरभ के पीछे नंगे पावों ही दौड़ पड़ा. ऐसा पहली बार हो रहा था की कोई सौरभ के पीछे उसको पकड़ने के लिये दौड़ रहा था...वरना हमेशा तो हम उसके आगे ही भागते थे उस से बच कर......बाहर मैदान मे उसको पकड़ ही लिया और फिर गुत्थम गुत्था ...ज़मीन पर..रेत में...... !!
सौरभ के घर काफी आना जाना रहा..उस वक़्त भी ऐसा लगता था की वो यारों का यार है. उम्मीद है बड़ा होकर वो ऐसा ही होगा. उस लड़ाई के बाद सिर्फ एक बार कुछ 5-6 साल बाद एक सी छोटी सी मुलाकात, उसके ऑफीस में हुई थी...पूरी गर्मजोशी से मिला...मिल कर अच्छा लगा था....
आज करीब पैंतीस साल पुरानी यादों को ताज़ा कर गयी मुजीब की लिखी ये पँक्तिया, जिसे एक ही सांस मे पढ़ते-पढ़ते, आँखों ने भी नमी का एहसास किया. मम्मी पापा को बताया तो उन्हे भी अवाक कर गयी ये खबर...एक दुख भरे एहसास के साथ...
Rest In Peace Saurabh.
Bahut hi sunder vyakhya , aapko bahut aur anek dhanyawad.
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