Tuesday, June 17, 2014

वकील भाई

कल  रात खाने से फ़ारिग़ होकर मैं मुस्तफा को साइकिल चलवाने घर के क़रीब पार्क में ले गया। …… रेगिस्तान के लिए ख़ास तौर पर genetically modified Carpice के पेड़ों की भीनी खुशबू और हवा की खुश मिज़ाजी ने ज़हन को मुअत्तर कर दिया और उसपर से उलझनों की कुछ परतें उतर  गयीं ……………………सैर ख़त्म करने के बाद घर का रुख न करते हुए मैंने गाड़ी एक सुनसान रास्ते पर डाल दी.  Radio Kuwait की उर्दू सर्विस भूले बिसरे गीत नश्र कर रही थी, उस्ताद अमानत अली खान "कल चौदहवीं की रात थी"  गा रहे थे। ……… ग़ज़ल ख़त्म होते होते मैं इसके रास्ते माज़ी के एक ख़ूबसूरत बाब में दाखिल हो गया........ काफी बचपने में ग़ज़ल से बाक़ायदा मेरी मुलाक़ात वकील भाई ने कराई थी।...........वकील भाई हमारे बहनोई थे उनका पूरा नाम वकील उर रहमान था ,,, पेशे से इंजीनियर एक सरकारी महकमे में मुलाज़िम थे ………मेरी और उनकी उम्र में ख़ासा फ़ासला था लेकिन हम दोनों दोस्त थे
मुझे याद है, मैं स्कूल की छुट्टियों में आपा भाई साहब के पास मेरठ गया हुआ था, उनका घर पहली मंज़िल पर था जिसमें बड़ी खुली हुई छत थी जिसपर हम लोग शाम से ही चारपाइयाँ बिछा कर महफ़िल सजा लेते थे। ………… उस रोज़ भी हवा की खुनकी ने भाईसाहब के शायराना मूड को परवाज़ दे दी और उन्होंने बहुत ही डूब कर इब्ने इंशा की शाहकार, उस्ताद अमानत अली खान की गाई हुई ग़ज़ल "इंशा जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना  क्या"  सुनायी। …… .... उर्दू की बहुत समझ भी नहीं थी मगर जब ये मिस्रा आया "शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में"....... तो न जाने क्यों मेरे अंदर एक अजीब कैफियत पैदा हो गयी ...... इस दिन से मेरी ग़ज़ल से दोस्ती है ये अलग बात है तमाम उम्र कोशिश के बावजूद में भाईसाहब की तरह ग़ज़लसरा  न हो पाया। ...................... ग़ज़ल के अलावा अदब और शायरी का शौक़ भी भाईसाहब की सोहबत  में पनपा। ………

वकील भाई और आपा की शादी  में मेरी उम्र कोई चार पांच साल रही होगी लेकिन इस तक़रीब के तमाम वाक़यात मुझे अच्छे से याद हैं, भाईसाहब और उनके दोस्त अरविन्द गोविल जो रामायण सीरियल के राम अरुण गोविल के बड़े भाई हैं , एक से brown check के सूट पहन कर आये थे। ....  … उनकी towering personality में सबसे prominent उनकी भरी भरकम आवाज़ थी.......... जब वो बोलते थे सब ख़ामोशी से सुनते थे। .......भाईसाहब ने मुझे अपना मुरीद और कोई 4 -5 बरस बाद बनाया। …… लोगों को अहमियत देने का उनका एक अलग तरीका था। …… मैं घर में छोटा था और उसी तरह का बर्ताव मुझसे सब करते थे लेकिन भाईसाहब ने मुझे एक खत लिखकर मेरे  अंदर इंक़लाबी तब्दीलियां पैदा कर दीं। .... एक तो मुझे बड़ा होने का एहसास दिलाया दूसरा, मुझे ख़तो किताबत का चस्का लगा दिया कम उम्र से ही letter writing मेरी hobby बन गयी और email के आने से क़ब्ल मुझे लिखे गए तमाम ख़ुतूत मेरे पास पर महफूज़ हैं। ……… अब भी कभी कभी अपना बक्सा खोल कर बैठ जाता हूँ और उन्हें पढ़ता हूँ.…… इन ख़तों के ज़रिये बहुत से लोगों से ऐसे लोगों से मिलना हो जाता है जिनमें से कुछ हैं, कुछ खो गए ………………… सब उस एक खत की वजह से जो वकील भाई ने मुझे कोई 30 -35   बरस पहले लिखा था। …………

जब कभी भी भाईसाहब अलीगढ आते थे हमारे घर में जश्न का सा माहौल होता, सबको पता रहता था कि अब खूब हंगामा रहेगा। ……महफिलें शाम को जमती, सब बहन भाई उनके इर्द गिर्द बैठ जाते और भाईसाहब के क़िस्से/कहानियों/लतीफों/ग़ज़लों का दौर शुरू हो जाता .... घंटों वो क़िस्से कहानियां सुनते रहते और उनका स्टॉक ख़त्म ही नहीं होता। ……………… मुझे उनकी याददाश्त और ज़हानत  से  अक्सर रश्क हुआ और बावजूद खुद stage से ताल्लुक़ रखने के मुझे उनके आगे ख़ुद के बौनेपन का एहसास कसरत से होता था। ....... न तो मैं उनके जैसी क़िस्सागोई कर सकता था न उनके जैसा गा सकता था। और न ही मेरे पास हिंदी/उर्दू अदब की उनके जैसी मालूमात थी। .......... जब वो प्रेमचन्द्र का ज़िक्र करते तो घंटों उनके और उनके अफसानों के बारे में बताते रहते , जब वो इक़बाल की बात करते तो लगता जैसे इक़बाल पर उन्होंने thesis लिखी हो और इंतेहा हो जाती जब वो किसी भी गाने को सुनकर  शजरह यानि मौसिक़ार गीतकार वग़ैरा वग़ैरा सब बता देते थे। ………………पता नहीं उन्होंने इतना इल्म  कब और कैसे हासिल किया. …
मेरा ख्याल है उनके पास खुदादाद सलाहियत थी ………… वो अपने आसपास की चीज़ों को ग़ौर से observe करते थे और इन्ही रोज़मर्रा की छोटी छोटी चीज़ों से क़िस्से कहानियां बुन लेते फिर उनको दिलफरेब अंदाज़ में पेश कर देते थे। ………

उनकी इस extraordinary observation पावर पर एक छोटा सा क़िस्सा याद है  ………… किसी सफर में जब बस कहीं रुकी तो एक मिस्कीन सा आदमी चढ़ गया और बारीक से आवाज़ में टॉफ़ी बेचने लगा। "ये खट्टी मीठी गोलियां"……………  मुसाफिरों में से किसी ने दबंग  उसे डांटा " अबे क्या बेच रहा है ?? ज़ोर से बोल"………………… उस ग़रीब ने  जवाब दिया "इत्ती ही निकलती है साब "...................... जिस अंदाज़ में भाईसाहब इस पूरे क़िस्से तो enact  करते थे, सुनने वाले लोटपोट हो जाते .......... हमने ये क़िस्सा उनसे हज़ारहा बार सुना होगा और हर बार उतना ही हंसे जितना पहली बार सुनकर हँसे थे।  .....................

bhaisahab ke खाने का शौक़ भी क़ाबिले ज़िक्र है. …… ऐसा नहीं था के उन्हें सिर्फ़ फाइव स्टार स्टार खाने पसंद थे बल्कि तक़रीबन उबली हुई लौकी सब्ज़ी भी  इस शौक़ और एहतेराम से खाते जैसे मन्न सलवा उतरा हो। .... हर लुक़मे पर उनके   चेहरे  पर  ज़ाएक़े और इत्मीनान का तास्सुर बताता था वो इस नेमत के लिए khuda के कितने शुक्रगुज़ार हैं। …खाने से उनकी दिलचस्पी से जुड़ा एक मज़ेदार वाक़या मुझे याद है। .... मैं उनके पास देहरादून गया था। ............. किसी सरकारी काम से उनको लखनऊ जाना था, रात का खाना वो शाम में ही घर से खाकर निकले। ....... फिर भी आपा ने एहतियातन क़ीमा परांठे का टिफ़िन साथ कर दिया के अगर ज़रूरत महसूस हो तो खा लिया जये....  मैं उनको स्टेशन छोड़ने गया। ................ अपनी रिजर्व्ड सीट पर क़ब्ज़ा करके हम बैठ कर गपशप करने लगे, ट्रेन छूटने में अभी वक़्त था। … भाईसाहब ने इस तर्क से टिफ़िन खोल लिया क रात बिरात में कौन परेशान होगा !!! जो है अभी खा कर ख़त्म कर जाए।
उनका एक और मज़ेदार क़िस्सा जिसे हम बार बार सुनते थे लिख रहा  हूँ। ………… मेरठ में एक मश्हूर eye specialist  अख्खड़ मिज़ाज के लिए जाने जाते थे उनको अपने मरीज़ों  से मुँहज़ोरी की आदत थी। .... भाईसाहब अपने किसी भाई को लेकर डॉक्टर साहब के पास गए और बहुत नाप तोल कर कम से कम अल्फ़ाज़ में अर्ज़ किया "डॉक्टर साहब इसकी आँख से पानी आ रहा है" डॉक्टर साहब ने आदत से मजबूर तुनक कर कहा " तेरा क्या ले है"……………तीमारदार इस हमले के लिए हालाँकि तैयार था मगर उन्होंने चुप रहना ही मुनासिब समझा। …… लेकिन एक बार डॉक्टर साहब को सवा सेर से दोचार होना ही पड़ा। …… एक उम्र रसीदा खातून पान खाते  हुए डॉक्टर साहब के सामने अपना मर्ज़ बयां करने पेश हुई ही थी कि साहब अपने डांटने के लहजे में बोले "क्यों री बुढ़िया पान खावे ??".......  ये बुढ़िया भी चंगेज़ खान के ख़ानदान की थी उनसे ज़्यादा तुनक कर जवाब दिया "तेरे बावा (बाप) का खाऊँ हूँ ?................ सुना है उसके बाद डॉक्टर साहब बहुत दिन तक मुँहज़ोरी से बाज़ रहे। ………………ज़ाहिर है इस क़िस्से को भाई साहब की ज़ुबानी सुनने और लिखने में इतना ही फ़र्क़ है जैसे मोईन अख्तर , अनवर मक़सूद के शो loose talk की स्क्रिप्ट पढ़ने  और उन का शो देखने में होगा ……… इसी तरह के भाईसाहब के बेशुमार क़िस्से हैं जिनको अलफ़ाज़ अगर दे भी दिए जाएँ अंदाज़ देना नामुमकिन होगा। ....... in short he was a genius...........

सब कुछ ठीक चल रहा था, यूँ कहिये "ज़माना बड़े शौक़ से सुन रहा था.…… हमीं सो गए दास्तां कहते कहते ,………… भाईसाहब की पोस्टिंग अलीगढ में थी। … मैं इटावा के क़रीब दिबियापुर में नौकरी कर रहा था  जब मुझे भाईसाहब के heartattack की खबर मिली। .......... आजकल के दौर में हज़रते दिल की तमाम बीमारियां repairable हैं लेकिन भाईसाहब के पहलू  में ये जनाब ख़ासे नाराज़ हो गए थे। …………… इतने कि उनकी ज़िंदगी के आख़री 14 साल वो धड़कते  तो रहे लेकिन भाईसाहब को तक़रीबन बिस्तर से लगा दिया................... हालाँकि वो आख़री वक़्त तक अपने तमाम काम कर सकते थे मगर बहुत  आहिस्ता आहिस्ता। ..........

इन 14 में से 10 साल  मैं कुवैत में था लेकिन हम दोनों में ख़तो किताबत जारी रही। ………… emails की आमद के बावजूद हम लोग एक दूसरे को खत ही लिखते थे। ................ उनके एक ही खत में हमारी दिलचस्पी के तमाम मौज़ूआत पर थोड़ा थोड़ा तब्सिरा हो जाता था ............. क्रिकेट, literature , films और शायरी के बारे में हम लोग खूब तबादला ए ख्याल ख़याल करते रहते थे।  मैं उनका एक एक खत कई कई बार पढ़ता था.................

भाईसाहब की बीमारी के चलते अब ख़ानदान की तक़रीबात  में महफिलें सजाने और  हंगामों की ज़िम्मेदारी मैंने ले ली थी। …….... भाईसाहब शरीक रहते और हम लोगों की हौसलाअफजाई करते थे। .......... ऐसी ही एक तक़रीब में खूब हंगामा काटने के बाद जब मैं वापस कुवैत आया तो पीछे पीछे भाईसाहब का उदास सा एक खत आया जिसमें उन्होंने मेरे लिए एक शेर लिखा  …………
तमाम रौनक़ें उसी के दम से थीं
गया तो शहर को वीरान कर गया एक शख़्स। …………
बीमारी ने उनके जिस्म पर भरपूर असर डाला था लेकिन उनके हौसले को नहीं हिला पाई। …… आखरी वक़्त तक में उनके अंदर भरपूर जिंदिगी थी। ....... रुखसत से एक दो रोज़ पहले नसरीन आपा उनसे मिलने हॉस्पिटल गयीं, अपनी आदत से मजबूर भाईसाहब ने खुद को attend कर रही नर्स पर जुमला कस दिया और हॉस्पिटल के उदास माहौल में मुस्कुराहटें फैल गयीं............ फिर खुद ही आपा से मुखातिब होकर कहा "तुम्हारे भाईसाहब की मज़ाक करने की आदत अभी तक नहीं गयी"……………
इसके 2 -3 दिन बाद मार्च 2008 में वो चले गए। ……उनके साथ मेरा भी कुछ हिस्सा चला गया। .... तब से इब्ने इंशा को न पढ़ा न सुना। …। दिल नहीं चाहता। .............
उनको किसी खत में एक शेर तशरीह के  लिए लिखा था
सारा दिन में एक ही चेहरा देखता हूँ
जिसको देखा नहीं है उसको देखता रहता हूँ
मुझको घायल कर देती है एक आहट अंजानी सी
गलियों गलियों एक ह्यूला ढूंढ़ता रहता हूँ। .............
भाईसाहब ने इसकी तशरीह करके मुझे भेजा और इसमें अपना एक शेर भी जोड़ दिया.
कोई ताल्लुक़ नहीं रहा अब फिर भी
घंटों घंटों एक खयाली अल्बम देखता रहता हूँ।  ………

वकील भाई से मुझे बेपनाह अक़ीदत थी। ................ इतनी की .......
तमाम रौनक़ें उसी के दम से थीं
गया तो शहर को वीरान कर गया एक शख़्स

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